Cartoonist Abhishek , Assistant Editor/ Editorial Cartoonist, राजस्थानपत्रिका, PrimeTime host, Patrika Tv
Monday, December 27, 2010
Wednesday, December 8, 2010
GHANE JANGLON MEN EK PHOOL.....

बात कोई तेरह -चौदह वर्ष पुरानी है। उस रात जब केवल मेरे कमरे में आया तो उसके चेहरे में एक चमक थी। पत्रकारों को किसी नई कहानी के मिलने का एसा ही सुकून होता है जैसा ताजी कविता लिखी जाने के बाद पहले श्रोता को उसे सुना दिये जाने का। चन्द्रू आज उसकी कहानी था। नारायणपुर के जंगलों से थके हारे होने की थकान कहीं नहीं दिखती थी बल्कि वह अपनी उपलब्धि के एक एक पल और वाकये से मुझे अवगत करा देना चाहता था।
केवल अपने यायावर स्वभावानुकूल उन दिनों “दण्डकारण्य समाचार” छोड कर देशबंधु से जुड गया था। देशबंधु अखबार ने ही “हाईवे चैनल” नाम के सान्ध्य अखबार का आरंभ किया था जिसके स्थानीय अंक का कार्यभार देखने के उद्देश्य से केवल उन दिनों जगदलपुर में ही था।
“मुझे आलोक पुतुल नें फोन कर के बताया कि बस्तर में किसी आदिवासी लडके पर फिल्म बनी है और उस पर स्टोरी करनी चाहिये। मुझे मालूम था कि ये असंभव सा काम है। मुझे आगे पीछे की कोई जानकारी नहीं थी। न फिल्म का नाम पता था न किसने बनाई है वो जानकारी थी।” केवल के स्वर में अपनी खोज को पूरी किये जाने का उत्साह साफ देखा जा सकता था।
“अबे ‘बस्तर एक खोज’ तू स्टोरी तक भी पहुँचेगा कि सडक ही नापता रहेगा।” मैंने स्वभाव वश उसे छेड दिया था।
“तू पहले पूरी बात सुन लिया कर।...। मैं अपना ‘क्लू’ ले कर बसंत अवस्थी जी के पास गया उन्होंने मुझे किन्ही इकबाल से मिलने के लिये कहा जो आसना में रहते हैं। उनसे इतना तो पता चला कि नारायणपुर के किसी आदिवासी पर एसी फिल्म बनी है। तुरंत ही मैनें “नारायणपुर विशेष” लिखने के नाम पर अपना टूर बनाया लेकिन दिमाग में यही कहानी चल रही थी। नारायणपुर पहुँच कर बहुत कोशिशों के बाद मुझे चन्द्रू के विषय में जानकारी मिली”
“आखिरकार तेरी सडक कहीं पहुँची तो..” मैने मुस्कुरा कर कहा। हालांकि मैं जिज्ञासु हो गया था कि यह चंद्रू कौन है? कैसा है? उसपर फिल्म क्यों बनी?
“ये अंतराष्ट्रीय फिल्म का हीरो चन्द्रू उस समय घर पर नहीं था जब मैं गढबंगाल में उसके घर पर पहुँचा। वो झाड-फूंक करने पडोस के किसी गाँव गया हुआ था” केवल नें बताया।

“कैसा था चंद्रू का घर” मैंने अनायास ही बचकाना सवाल रख दिया। मेरी उत्कंठा बढ गयी थी।
“जैसा बस्तरिया माडिया का होता है। तुझे क्या मैं शरलॉक होम्स की स्टोरी सुना रहा हूँ? वही मिट्टी का मकान, वही गोबर से लिपी जमीन, वही बाँस की बाडी।...। मुझे वहाँ बहुत देर तक उसका इंतजार करना पडा।“
“मुलाकात हुई?” यह प्रश्न जानने की जल्दबाजी के कारण मैंने किया था।
“मुलाकात!!! उसे अब न फिल्म में अपने काम की याद थी न फिल्म बनाने वालों की। उसके लिये फिल्म एक घट गयी घटना की तरह थी जिसके बाद वह लौट आया और फिर आम बस्तरिया हो गया। उसकी जीवन शैली में कोई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म का हीरो नहीं था यहाँ तक कि उसकी स्मृतियों या हावभाव में भी एसा कुछ किये जाने का दर्प या आभास नहीं था....”

“कितनी अजीब बात है न?”
“अजीब यह भी था कि उसके पास अपने किये गये काम की कोई जानकारी या तस्वीर भी नहीं थी। बहुत ढूंढ कर उसने एक किताब निकाल कर दिखाई और बताया कि इसमें उसकी फिल्म की तस्वीर है। वह इतनी बुरी हालत में थी कि उसे किताब नहीं कह सकते थे। अंग्रेजी की इस पुस्तक को मैने जानकारी मिलने की अपेक्षा में उससे माँग लिया।“
“वो क्यों देगा? उसके पास वही आखिरी निशानी रही होगी अपने काम की?”
“वही तो आश्चर्य है। उसने बडे ही सहजता से पुस्तक मुझे दे दी। मैं उसे लौटा लाने का वादा कर के उसे ले आया हूँ। किताब को अभी सिलने और बाईंड कराने के लिये दे कर आ रहा हूँ।”
केवल नें चंद्रू का एक चित्र सा खींच दिया था। मेरी कल्पना में वह “मोगली” या “टारजन”जैसा ही था। चंद्रू को सचमुच क्या मालूम होता कि उसने क्या काम किया है या कि उसने केवल को जो पुस्तक दी है खुद उसके लिये कितने मायने रखता है। जंगल से अधिक उसके लिये शायद ही कुछ मायने रखता होगा?
केवल से मैं उसकी इस कहानी के विषय में जानने की कोशिश करता रहा। उसने कहानी अलोक पुतुल को देशबंधु कार्यालय भेज दी थी। आलोक नें उस कहानी में श्रम कर तथा उसमें अपने दृष्टिकोण को भी जोड कर संवारा और फिर यह देशबंधु के अवकाश अंक में प्रकाशित भी हुआ। चंद्रू को चर्चा मिली और यह भी तय है कि अपनी इस उपलब्धि और चर्चा से भी वह नावाकिफ अपनी दुनिया में अपनी सल्फी के साथ मस्त रहा होगा। उन ही दिनों इस स्टोरी पर चर्चा के दौरान ही केवल नें मुझे बताया था कि संपादक ललित सुरजन अवकाश अंक पर इस स्टोरी के ट्रीटमेंट से खुश नहीं थे और उनकी अपेक्षा इस अनुपम कहानी के ‘और बेहतर’ प्रस्तुतिकरण की थी। यद्यपि कहानी यहीं समाप्त नहीं हुई। न तो केवल की और न ही चन्द्रू की।

केवल के साथ मैं धरमपुरा में दादू की दुकान पर चाय पी रहा था। केवल की आवाज में आज चन्द्रू की बात करते हुए वह उत्साह नहीं था।
“तूने चन्द्रू को किताब वापस कर दी?” मैने बात आगे बढाई।

“हाँ, मैं किताब और अखबार की रिपोर्ट के साथ नारायणपुर जा रहा था। कांकेर में कमल शुक्ला से मिलने के लिये रुक गया। वही एक और पत्रकार साथी हरीश भाई मिले। स्टोरी को पढने के बाद वो इतने भावुक हो गये कि उसे ले कर कही चले गये...जब लौटे तो उनके हाथ में एक फोटोफ्रेम था जिसमें यह खबर लगी हुई थी।“
“फिर तू चन्द्रू से मिला?”
“मैं जब गढबंगाल पहुँचा तो चन्द्रू घर पर नहीं था। घर के बाहर ही चन्द्रू की माँ मिल गयी जो अहाते को गोबर से लीपने में लगी हुई थी।“
“तूने इंतजार नहीं किया?”
“नहीं मैं देर शाम को ही पहुँचा था और मुझे लौटना भी था। जब मैने अपने आने का कारण चन्द्रू की माँ को बताया और उसे जिल्द चढी किताब के साथ फोटो फ्रेम में मढी खबर दी...”
“खुश हो गयी होगी?”
“नहीं। उसने जो सवाल किया मैं उसी को सोचता हुआ उलझा हुआ हूँ”
“तू भी पहेलियों में बात करता है”
“चन्द्रू की माँ ने कुछ देर फोटो फ्रेम को उलटा-पलटा। अपने बेटे की तसवीर को भी देखने की जैसे कोई जिज्ञासा उसमें दिखी नहीं..फिर उसने मुझसे कहा – ‘तुम लोग तो ये खबर छाप के पैसा कमा लोगे? कुछ हमको भी दोगे?”
“फिर?” मुझे एकाएक झटका सा लगा।
“पहले पहल ये शब्द मुझे अपने कान में जहर की तरह लगे। फिर मुझे इन शब्दों के अर्थ दिखने लगे। मैने शायद पचास या साठ रुपये जो मेरे पास थे उन्हे दे दिये थे और अपने साथ यही सवाल के कर लौट आया हूँ कि ‘हमको क्या मिला?’...” केवल नें गहरी सांस ली थी।
आज बहुत सालों बाद चन्द्रू फिर चर्चा में है। जी-टीवी का चन्द्रू पर बनाया गया फीचर ‘छत्तीसगढ़ के मोगली’ को राज्योत्सव में सम्मानित किया जा रहा है। मैं स्तब्ध हूँ कि चन्द्रू को खोज निकालने वाला केवलकृष्ण, उसे ढूंढ निकालने की सोच वाला आलोक पुतुल...कोई भी तो याद नहीं किया जा रहा। मैं आज फिर चन्द्रू की माँ के उसी प्रश्न को भी देख रहा हूँ जो कि पुरस्कार और उत्सव बीच निरुत्तर भटक रहा है – “हमें क्या मिला?” साभार : राजीव रंजन प्रसाद , साहित्य शिल्पी
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